अँधेरा होते होते वो भी छोड़ जाती है
लगता है दो वक़्त की रोटी के लिए
कहीं ज्यादा दूर निकल आये हैं
डेढ़ रोज़ हो चले हैं न अपनों से बात कोई
ना दुश्मनों से मुलाकात कोई ..
खो गया हूँ खुद की तलाश में
किस नुक्कड़ न बैठा, किस गली न भटका
भरी धुप में दूर तक चला मैं
ताड़ा हर कोना , इंतज़ार भी किया मैंने
पर मैं ना मिला
धोखा मिला
दुःख से भी मुलाकात हुई
चलती फिरती मुस्कुराहटें मिली
धुंधली सी मंजिल की कई राहें भी मिली
सुख दूर से देख के चला गया
गम का तो क्या ज़िक्र करूँ
वो तो आया चीर के निकल गया
दर्द से दोस्ती हुई
दर्द ने चलना सीखाया
खुशियों से मेल कराया
फिर दर्द न रहा चला गया कहीं
अब खुशिया थी ,जो ताने मारती थी
एक दिन आया वो भी चली गयी
साथी सब चले गए
हाथ खाली रह गए
कदम रुके थे उस जगह अभी
चले थे जहाँ से कभी
तलाश थी किसी एक की
ज़िन्दगी ने बहुत से मिलाया
सब कुछ मिला
मैं ना मिला ..मैं ना मिला
खुशियों में डूबा शहर था ,
गम की धूप निकल आई
तकलीफ हुई शुरुआत में थोड़ी ,
फिर ये धूप ही तो बादल लाई |
मतलब नहीं मुझे ख़ुशी से
न कोई नाता दुःख से रखना है ,
गलियों को तो इंतज़ार है बस बारिस का
मेरा जहाज जो चलाना है |
एक दिन मौसम साफ़ था
गलियों में धूप का कहर था
शाम को दिल में आराम था
क्यूंकि आसमाँ थोडा श्याम था
इंतज़ार था उनके बरसने का
ज़रा गलत फ़हमी हो गयी
मिलने मुझसे वो हवा आ गयी
वो मेरी गलियां सुखी रह गयी …
पर ये सुना था कहीं , न खोना होंसला कभी
न हुई बारिस तो क्या , न भरी वो गलिया तो क्या
जो क्या हुआ जहाज को चला न सका ,
हम तो इसे उड़ाकर काम चला लेंगे | |